Tuesday, August 9, 2011

पौने दोसो नकाब है

थोड़ी पी लेता हूँ तो लगता है भेद खुल गए सब इस दुनिया के, सब संगमरमर सा साफ़ है
सोकर उठता हूँ अगली सुबह, चार लोगो से मिलता हूँ, हर एक चेहरे पर पौने दोसो नकाब है

या तो कही गड़बड़ है कुछ हम में, या फिर पूरी कायनात गलत है, पता चलता नहीं माजरा 
बस इतना पता चलता है की असली दोस्त तो है अपने पाच वही, बाकी सबके वायदे बेबुनियाद है

हम तो इस उम्मीद पर टिके थे की वो खुद ही गबन कबूल करेंगे पान खिला कर, गले लगाकर
अब दिल का गुबार निकाले भी तो कैसे, नशे में तो सिर्फ हम है, बाकी अभी भी हाज़िर जवाब है

माना दिल दे कर जुर्म इक हमने भी किया था छोटा सा कभी, पर इतनी सज़ा नहीं बनती थी
ताली भी एक हाथ नहीं बजती, उन्होंने तो हमे ऐसे तड़पाया जैसे उनकी रूह एकदम बेदाग़ है

अभी तक भी तो चल ही रहा था रफ़्तार से सब कुछ, आगे भी चलेगा, मुझे कोई शिकवा नहीं
मैं तो आज भी ना कलम उठाता, मेरी क्या गलती, कुछ दर्द का नशा है बाकी हलकी शराब है



 PS: This poem has been taken from someone's blog as I find it interesting

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